12/11/25
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महान क्रांतिकारी देशभक्त थे मदनमोहन मालवीय

महामना मदन मोहन मालवीय 12 नवंबर 1946 को उनका निधन हो गया था। उन्होंने अपना पूरा जीवन देश और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया, और एक महान शिक्षाविद, पत्रकार, समाज सुधारक और भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के नेता के रूप में जाने जाते हैं। इतिहासकार वीसी साहू के अनुसार हिन्दू राष्ट्रवाद के समर्थक मदन मोहन मालवीय देश से जातिगत बेड़ियों को तोड़ना चाहते थे। उन्होंने दलितों के मन्दिरों में प्रवेश निषेध की बुराई के ख़िलाफ़ देशभर में आंदोलन चलाया। 24 दिसम्बर, 2014 को भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने पंडित मदनमोहन मालवीय को मरणोपरांत देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा।
इलाहाबाद में 25 दिसम्बर, 1861 में जन्मे पंडित मदन मोहन मालवीय अपने महान् कार्यों के चलते ‘महामना’ कहलाये। महामना मालवीय जी ने सन् 1884 में उच्च शिक्षा समाप्त की। उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी प्रवेश किया और 1885 तथा 1907 ई. के बीच तीन पत्रों- हिन्दुस्तान, इंडियन यूनियन तथा अभ्युदय का सम्पादन किया।

मदनमोहन मालवीय की प्राथमिक शिक्षा इलाहाबाद के ही श्री धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला में हुई जहाँ सनातन धर्म की शिक्षा दी जाती थी । इसके बाद मालवीयजी ने 1879 में इलाहाबाद ज़िला स्कूल से एंट्रेंस की परीक्षा उत्तीर्ण की और म्योर सेंट्रल कॉलेज से एफ.ए. की। मालवीय जी दो बार 1909 तथा 1918 ई. में कांग्रेस के अध्यक्ष हुए। मालवीय जी ब्रिटिश सरकार के निर्भीक आलोचक थे और उन्होंने पंजाब की दमन नीति की तीव्र आलोचना की, जिसकी चरम परिणति जलियांवाला बाग़ काण्ड में हुई। वे कट्टर हिन्दू थे, परन्तु शुद्धि (हिन्दू धर्म को छोड़कर दूसरा धर्म अपना लेने वालों को पुन: हिन्दू बना लेते) तथा अस्पृश्यता निवारण में विश्वास करते थे। वे तीन बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि 1915 ई. में ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ की स्थापना है।कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह से उनका परिचय हुआ तथा मालवीय जी की भाषा से प्रभावित होकर राजा साहब ने उन्हें दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ का सम्पादक बनने पर राजी कर लिया।

इसी के प्रचार की दृष्टि से उन्होंने 1907 ई. में ‘अभ्युदय’ की स्थापना की। मालवीय जी ने दो वर्ष तक इसका सम्पादन किया। प्रारम्भ में यह पत्र साप्ताहिक रहा, फिर सन् 1915 ई. से दैनिक हो गया।’लीडर’ और ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ की स्थापना का श्रेय भी मालवीय जी को ही है। ‘लीडर’ के हिन्दी संस्करण ‘भारत’ का आरम्भ सन् 1921 में हुआ और ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ का हिन्दी संस्करण ‘हिन्दुस्तान’ भी वर्षों से निकल रहा है। इनकी मूल प्रेरणा में मालवीय जी ही थे।’लीडर’ के एक वर्ष बाद ही मालवीय जी ने ‘मर्यादा’ नामक पत्रिका निकलवाने का प्रबन्ध किया था। इस पत्र में भी वे बहुत दिनों तक राजनीतिक समस्याओं पर निबन्ध लिखते रहे। यह पत्रिका कुछ दिनों तक ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी से प्रकाशित होती। ‘सनातन धर्म-संग्रह’ नामक एक बृहत ग्रंथ तैयार कराकर महासभा में उपस्थित किया। सनातन धर्म सभा के सिद्धांतों के प्रचारार्थ काशी से 20 जुलाई, 1933 ई. को मालवीय जी की संरक्षता में ‘सनातन धर्म’ नामक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित होने लगा और लाहौर से ’मिश्रबन्धु’ निकला यह सब मालवीय जी के प्रयत्नों का ही फल था। स्वयं वर्षों तक कई पत्रों के सम्पादक रहे। पत्रकारिता के अतिरिक्त वे विविध सम्मेलनों, सार्वजनिक सभाओं आदि में भी भाग लेते रहे। इसके अतिरिक्त ‘सनातन धर्म सभा’ के नेता होने के कारण देश के विभिन्न भागों में जितने भी सनातन धर्म महाविद्यालयों की स्थापना हुई, वह मालवीय जी की सहायता से ही हुई।

आर्य समाज से मतभेद
आर्य समाज के प्रवर्तक तथा अन्य कार्यकर्ताओं ने हिन्दी की जो सेवा की थी, मालवीय जी उसकी कद्र करते थे किंतु धार्मिक और सामाजिक विषयों पर उनका आर्य समाज से मतभेद था। समस्त कर्मकाण्ड, रीतिरिवाज, मूर्तिपूजन आदि को वे हिन्दू धर्म का मौलिक अंग मानते थे। “भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली वर्तमान कठिनाईयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बड़ी कठिनता यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक अत्यंत दुरुह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन-समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।” एक भाषण में उन्होंने कहा था कि “भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली वर्तमान कठिनाईयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बड़ी कठिनता यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक अत्यंत दुरुह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन-समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।”
कोई सन्देह नहीं कि वे उच्च कोटि के विद्वान, वक्ता और लेखक थे। सम्भव है बहुधन्धी होने के कारण उन्हें कोई पुस्तक लिखने का समय नहीं मिला। अपने जीवन काल में जो उन्होंने कुछ हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए किया सभी हिन्दी प्रेमियों के लिए पर्याप्त है किंतु उनकी निजी रचनाओं का अभाव खटकता है। महामना मालवीय जी अपने युग के प्रधान नेताओं में थे। जिन्होंने हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान को सर्वोच्च स्थान पर प्रस्थापित कराया।

महात्मा गांधी ने मदन मोहन मालवीय को ‘महामना’ की उपाधि दी थी। बापू उन्हें अपने बड़े भाई की तरह मानते थे। बापू ने मदन मोहन मालवीय के सरल स्वभाव का जिक्र करते हुए कहा था, “जब मैं मालवीय जी से मिला… वो मुझे गंगा की धारा की तरह निर्मल और पवित्र लगे। मैंने तय किया मैं उसी निर्मल धारा में गोता लगाऊंगा”। मदन मोहन मालवीय ने ही ‘सत्यमेव जयते’ को लोकप्रिय बनाया था। यह बाद में चलकर राष्ट्रीय आदर्श वाक्य बना और इसे राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे अंकित किया गया। हालांकि इस वाक्य को हजारों साल पहले उपनिषद में लिखा गया था।
पंडित मदन मोहन मालवीय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चार बार अध्यक्ष चुने गए। वह वर्ष 1909 में लाहौर, 1918 और 1930 में दिल्ली व 1932 में कोलकाता में कांग्रेस के अधिवेशन के अध्यक्ष रहे। ब्रिटिश सरकार ने ‘चौरी-चौरा कांड’ में लगभग 170 लोगों को फांसी की सजा सुनाई, तब पंडित मदन मोहन मालवीय ने मुकदमें की पैरवी कर लगभग 151 लोगों को बचाया। उनकी योग्यता का लोहा अंग्रेजी हुकूमत भी मानती थी। मदन मोहन मालवीय ने सविनय अवज्ञा आंदोलन और असहयोग आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई। इन आंदोलनों का नेतृत्व महात्मा गांधी ने किया था। 1920 में असहयोग आंदोलन, लाला लाजपत राय के साथ साइमन कमीशन का विरोध, नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन में अपनी अहम भूमिका निभाई।

मदन मोहन मालवीय ने निजाम से कहा कि वो बनारस में यूनिवर्सिटी बनाने के लिए आर्थिक सहयोग दें, मगर निजाम ने आर्थिक मदद देने से साफ इनकार कर दिया। इसके उलट निजाम ने बेइज्जती करते हुए कहा कि दान में देने के लिए उनके पास सिर्फ जूती है। मदन मोहन मालवीय जी बिना कुछ कहे निजाम की जूती ही दान में लेकर चले गए। इसके बाद भरे बाजार में मालवीय जी ने निजाम की जूती नीलाम करने की कोशिश की। हैदाराबाद के निजाम को जब इस बात की जानकारी हुई तो उन्हें लगा कि उनकी इज्जत नीलाम हो रही है। इसके बाद निजाम ने मदन मोहन मालवीय को बुलाकर उन्हें भारी भरकम दान देकर विदा किया।बीएचयू निर्माण के लिए मदन मोहन मालवीय को 1360 एकड़ जमीन दान में मिली थी। इसमें 11 गांव, 70 हजार पेड़, 100 पक्के कुएं, 20 कच्चे कुएं, 40 पक्के मकान, 860 कच्चे मकान, एक मंदिर और एक धर्मशाला शामिल थी।

हिन्दू आदर्शों, सनातन धर्म तथा संस्कारों के पालन द्वारा राष्ट्र-निर्माण की पहल की थी। इस दिशा में ‘प्रयाग हिन्दू सभा’ की स्थापना कर समसामयिक समस्याओं के संबंध में विचार व्यक्त करते रहे।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
मालवीय जी ने सन् 1916 ई. में ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ की स्थापना की और कालांतरों में यह एशिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय बन गया। वास्तव में यह एक ऐतिहासिक कार्य ही उनकी शिक्षा और साहित्य सेवा का अमिट शिलालेख है। पं0 मदन मोहन मालवीय जी के व्यक्तित्व पर आयरिश महिला डॉ. एनी बेसेंट का अभूतपूर्व प्रभाव पड़ा, जो हिन्दुस्तान में शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु दृढ़प्रतिज्ञ रहीं। वे वाराणसी नगर के कमच्छा नामक स्थान पर ‘सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज’ की स्थापना सन् 1889 ई. में की, जो बाद में चलकर हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का केन्द्र बना। पंडित जी ने तत्कालीन बनारस के महाराज श्री प्रभुनारायण सिंह की सहायता से सन् 1904 ई. में ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय’ की स्थापना का मन बनाया। सन् 1911 ई. में डॉ. एनी बेसेंट की सहायता से एक प्रस्तावना को मंजूरी दिलाई जो 28 नवम्बर 1911 ई. में एक ‘सोसाइटी’ का स्वरूप लिया। इस ‘सोसायटी’ का उद्देश्य ‘दि बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी’ की स्थापना करना था। 4 फरवरी, सन् 1916 ई. (माघ शुक्ल प्रतिपदा, संवत् 1972) को ‘दि बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी’ की नींव डाल दी गई। इस अवसर पर एक भव्य आयोजन हुआ। जिसमें देश व नगर के अधिकाधिक गणमान्य लोग, महाराजगण उपस्थित रहे।

महामना मदन मोहन मालवीय समिति के सचिव ‘पं. शशि मालवीय’ के अनुसार गौ, गंगा व गायत्री महामना का प्राण थे। उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में बाकायदा एक बड़ी गौशाला बनवायी थी। इस गौशाला को देखरेख के लिए विश्वविद्यालय के कृषि कॉलेज को सौंपा गया था। गंगा उन्हें इस क़दर प्यारी थीं कि उन्होंने न सिर्फ़ गंगा के लिए बड़े आंदोलन किए वरन् गंगा को विश्वविद्यालय के अन्दर भी ले गए थे, जिससे कि पूरा प्रांगण हमेशा पवित्र रहे।

सनातन धर्मी छात्रों को शाकाहारी भोजन व रहने की व्यवस्था सुलभ कराने के लिए इलाहाबाद में हिन्दू छात्रावास (हिन्दू बोर्डिग हाउस) की स्थापना, भारती भवन पुस्तकालय, दो अख़बार प्रारंभ करने आदि के कार्य महामना ने किए थे। हिन्दू छात्रावास आज भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय का सबसे बड़ा छात्रावास है। न्यायमूर्ति मालवीय के अनुसार महामना हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार ने 18 अप्रैल 1900 को आदेश जारी कर देवनागरी को सरकार कार्यालयों व न्यायालयों में प्रयोग की अनुमति।

मालवीय जी आजीवन देश सेवा में लगे रहे और 12 नवम्बर, 1946 ई. को इलाहाबाद में उनका निधन हो गया।

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