03/10/25
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खामोश हो गई बनारस की मधुर आवाज

शिव के डमरू और तवायफों के घुंघरूओं से अभिमंत्रित आवाज़ आज ख़ामोश हो गई। जी हां, उन्होंने मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान में तवायफों के साथ अपनी संगीत साधना की शुरुआत की और काशी की मणिकर्णिका पर मसाने में होली खेल उसे शिखर पर पहुंचाया। शास्त्र से लोक, किराना से बनारस और उत्सव से मसान को जोड़ने वाली गायकी के अनूठे गायक पंडित छन्नूलाल मिश्र का जाना संगीत की अपूरणीय क्षति है।
दशहरे की सुबह नाद, अनहद में मिल गया। वे नाद की उपासना से अनहद की खोज में चले गए। उनके जाने से उपशास्त्रीय गायन का वह शिखर शून्य हो गया, जहां कजरी, चैती, चैता, घाटों, सोहर, झूला, होरी, ठुमरी, बिखरे पड़े थे। इन विधाओं में फिलवक्त बनारस घराने की ऊंचाई इन्हीं से नापी जाती थी। वे बनारस घराने के वैश्विक प्रतिनिधि थे। हालांकि वो इस घराने के थे नहीं। रहने वाले आज़मगढ़ के हरिहरपुर के थे। संगीत की दीक्षा ली मुजफ्फरपुर के किराना घराने के अब्दुल गनी ख़ान से। बाद में बनारस में ठाकुर जयदेव सिंह से उन्होंने संगीत सीखा। जिस मणिकर्णिका घाट पर मसाने की होली गा उन्होंने उसे जन मानस तक पहुंचाया, उसी मणिकर्णिका घाट के मसान पर वे पंचतत्व में विलीन हुए।
ये संयोग ही है कि नाद और अनहद नाद, दोनों का ‘ब्रह्मकेन्द्र’ बनारस ही है। नाद साधना यहॉं के संगीत कलाकारों ने की और अनहद को यहीं सुना कबीर ने। दोनों की परम्परा चार सौ साल पुरानी है। पंडित जी मानते थे कि संगीत जीवन की आत्मा है, भक्ति है, शक्ति है। इसी पर सवार होकर अनंत की दौड़ लगायी जा सकती है। इसी संगीत को साध वो अनंत में लीन हो गए। छन्नूलाल मिश्र के गायन में इसी की वरुणा और इसी का अस्सी मिलता है। वो कबीर को भी गाते थे। तुलसी को भी। सूर और मीरा को भी। निर्गुण और सगुण को भी। प्रेम को और भक्ति को भी। इसीलिए छन्नूलाल के गायन में नाद और अनहद नाद, दोनों का अनुनाद है और इसी वैविध्य ने उन्हें काशी का संगीत प्रतिनिधि बनाया।
पंडित छन्नू लाल मिश्र की गायकी का सबसे मजबूत पक्ष है- श्रोताओं से उनका कनेक्ट। उन्होंने शास्त्र और लोक के भेद को मिटाया। वो मानते थे कि शास्त्रीयता दिखाने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन वो श्रोताओं को अच्छी लगनी चाहिए। जबरन शास्त्रीयता के वे खिलाफ थे। इसलिए बनारस घराने के दूसरे गायक उन्हें अपनी पांत में स्वीकार नहीं करते थे। छन्नूलाल को इसका फायदा भी हुआ और नुक़सान भी। नुक़सान यह कि बनारस घराने का दावा वो भले ही बातचीत में कर लेते रहे हों, बनारस घराने ने उनको अपनी पंक्ति में शामिल किया नहीं। फायदा ये हुआ कि घराने वालों से ज्यादा लोकप्रियता और पहुंच छन्नू गुरू के हिस्से आई। उन्होंने लोक की ओर देखा, लोक ने उनकी ओर। और दोनों एक दूसरे में डूबते अघाते रहे।
पं छन्नू लाल मिश्र की सबसे बड़ी उपलब्धि ही यही थी। उन्होंने संगीत को शास्त्रीयता की जड़ता से मुक्त कर लोक तक पहुंचाया। उनके गायन में बनारसी बोली की आत्मीयता और लोक संस्कारों की गहराई थी। इसलिए मैं उन्हें शास्त्रीय नहीं उप-शास्त्रीय गायक मानता हूँ। कोई साढ़े चार सौ साल पहले बनारस में पं दिलाराम मिश्र से यह परम्परा शुरू हो बड़े राम दास, महादेव मिश्र, हनुमान प्रसाद मिश्र और राजन- साजन जी तक पहुँचती है। यहीं पंडित कंठे महाराज से लेकर पं अनोखे लाल, पं किशन महाराज और गोदई महाराज तक तबले की समृद्ध परंपरा विराजती थी। गिरिजा देवी की ठुमरी हो या सितारा देवी और गोपीकृष्ण के नृत्य की ताल। बड़े राम दास, हनुमान प्रसाद मिश्र या फिर पंडित राम सहाय, राजन-साजन मिश्र का गायन। क्या शहर था? कलाओं की इस भूमि में विद्याधरी, सिद्धेश्वरी और हुस्नाबाई बड़ी मैना, छोटी मैना, चंपा बाई, जवाहर बाई सब यही के नगीने थे। मोइजुद्दीन खान जैसा बेजोड़ गायक। छप्पनछूरी खाने वाली जानकी बाई यहीं की थी। बिस्मिल्ला खॉं का सराय हडहा। सबकी जडें इसी शहर में हैं। एक एक कर सब चले गए। आज छन्नू लाल जी भी। बनारस उदास है। खाली भी।
छन्नूलाल जी की जीवन यात्रा की कहानी आज़मगढ़ से शुरू होती है। बात 1936 की है। उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के हरिहरपुर गांव में एक तबला वादक थे। नाम था बद्री प्रसाद मिश्र। उनके घर फरवरी महीने की 3 तारीख को एक बच्चा पैदा हुआ। बच्चे का नाम रखा गया मोहन लाल मिश्र। पिता ने बचपन से ही बच्चे को संगीत की तालीम देना शुरू किया। उनकी ख्वाहिश थी कि बेटा एक गुणी कलाकार बने। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। बेटा अभी 8-9 साल का ही हुआ था कि पंडित जी का तबादला मुजफ्फरपुर हो गया। नया शहर था। नया माहौल था। चतुर्भुज स्थान देश में तवायफों का बड़ा केन्द्र था। वहीं इस बालक को किराना घराने के कलाकार अब्दुल गनी खान मिले। वहीं एक घटना घटी। बच्चे का नाम उसकी गुरू मां ने बदल दिया। मोहन लाल मिश्र को बुरी नजर से बचाने के लिए के लिए गुरू मां ने उनका नाम रखा छन्नू। फिर उसी छन्नू ने दुनिया भर में छन्नू लाल मिश्र के नाम से शोहरत पायी।

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