गोड्डा में महिषासुर वध का आदिवासियों ने विरोध किया है. विरोध करने वाले लोगों को पंडाल के पूजारी गंगाजल और तुलसी दल देकर शांत करवाते हैं। ऐसा नजारा संथाल के कई पूजा पंडाल मे दिखता है।
गोड्डा, विजयादशमी के दिन श्रद्धा, भक्ति और उल्लास का माहौल रहता है. लेकिन संथाल परगना के आदिवासी समाज विजयादशमी के दिन दुख मनाते हैं. आदिवासी समाज माता दुर्गा के खिलाफ आक्रोशित हैं. आदिवासी समाज को सूचना मिलती है कि उनका इष्ट, राजा और पूजनीय महिषासुर का वध कर दिया गया है तो वो भागते हुए पूजा पंडाल पहुंचते हैं और महिषासुर को खोजने लगते हैं.
विजयदशमी के दिन संताल आदिवासी समाज के लोग पूजा पंडालों में पहुंचे और पूछा कि बताओ बताओ मेरा महिषा कहा गया। उनका मानना है कि उन्हें छल से मार दिया गया है।
आदिवासी समाज टोली बनाकर पहुंचते हैं।टोली में शामिल लोगों के लाल आंखे, सैनिक लिवास और भौहें तनी हुई होती हैं।इतने गुस्से में होते हैं कि उन्हें रोकने को लेकर पूजा पंडाल के पास पूरी व्यवस्था की जाती है, ताकि आदिवासी समाज के लोग प्रतिमा तक नहीं पहुंच पाए. पूजा पंडाल के पुजारी गंगाजल और तुलसी देकर शांत कराते हैं।उन्हें कहा जाता है कि महिषासुर को मुक्ति मिली है. अधर्म पर धर्म की जीत का संदेश देकर उन्हें विदा किया है. हालांकि ये जीवंत परंतु सांकेतिक होता है.
दरअसल, संथाल के आदिवासियों का मानना है कि महिषासुर का असली नाम महिषा सोरेन है और वे उनके पुरखे और पूर्वज हैं. महिषासुर का वध छल से मां दुर्गा द्वारा कर दिया गया है. इससे आदिवासी नाराज होकर आते हैं और महिषासुर की तलाश करते हैं. वैसे तो दक्षिण भारत मे भी रावण की पूजा करने की परंपरा है, वैसे ही आदिवासी समाज महिषासुर को अपना राजा मानते हैं और पूजते हैं.
हालांकि, इस कार्यक्रम के बाद आदिवासी समाज भी मेले का हिस्सा होते हैं और उत्साह के पर्व विजयदशमी में शामिल होते हैं. गोड्डा जिले के प्राचीनतम बलबड्डा दुर्गा मेला का इतिहास दो सौ साल पुराना है. यहां आदिवासी समाज का विरोध प्रदर्शन वर्षों से चली आ रही है. यह नजारा संथाल परगना प्रमंडल के सभी जिला में कई जगहों पर देखने को मिलता हैं. मेला के बाद उन्हें सम्मानित भी किया जाता है।
इस पुरे प्रदर्शन पर वरिष्ठ पत्रकार डा दिलीप कुमार बताते है ये एक सांकेतिक विरोध है जिसमें वो संदेश देना चाहते है कि हम असुर के राजा महिषासुर के वंशज है।
वही इस मसले पर आदिवासी मामलो के जानकार हवलदार किस्कू बताते है कि ये परम्परा पुरखो से चली आ रहीं है। जिसमें हम अपनी पौराणिक संस्कृति को दर्शाते है साथ ही बताने का प्रयास करते है हमारे पुरखे महिषासुर थे। हम आदिवासी उनको पूजते रहें है। बांकी सब कुछ मैत्री पूर्ण माहौल मे होता है जो ये दर्शाता है कि हमारी सांस्कृति कि जड़े काफ़ी मज़बूत है। साथ हम सभी धर्म के अनुयायी के साथ सम्मान का भाव रखते है।